Sunday, January 4, 2009

"खुद से जुदा हुए अब मुझे हो गया जमाना"



कभी कहीं मैं तुम्हे मिल जांऊ किन्ही राहों में,
तो लौटा देना मुझे महफूज मेरी पन्हाओं में,
खुद से जुदा हुए अब मूझे हो गया जमाना,
अपनी तस्वीर भी नहीं बाकी मेरी निगाहों में,
सुबह चला था कि शाम तक लौट आउंगा,
क्या पता था कि यूं सर-ए-बाजार खो जाउंगा,
सबने लूटा मिलके मुझसे बिछड़े हुए मुझको,
जुम्बिश तक भी ना छोड़ी हाथ-पांव में,
क्या जुर्म था मेरा क्या कभी मैं जान पाउंगा
क्या अपनी दास्तान कभी खुद को सुना पाउंगा
क्या एक अजनबी बन के आगे से गुजर जाउंगा
या फिर से भर लूंगा खुद को अपनी बाहों में
नहीं मालूम मुझे अंजाम मेरे इस फसाने का
जिसके हर पन्ने पर दर्द है खुद से बिछड़ जाने का
स्याही का रंग भी है मेरे खून से मिलता जुलता
और हर अल्फाज है धुंधला गम के सायों में
कभी कहीं मैं तुम्हे मिल जाऊं किन्हीं राहों में,
तो लौट देना मुझे महफूज मेरी पन्हाओं में,
खुद से जुदा हुए अब मुझे हो गया जमाना,
अपनी तस्वीर भी नहीं बाकी मेरी निगाहों में
"जान आई लव यू" तुमको बहुत मिस कर रहा हूँ.

3 comments:

Unknown said...

खुद से जुदा होना कैसा लगता है?

"अर्श" said...

bahot khub............

Vinay said...

वाह भई वाह!