Sunday, January 11, 2009

"जो सुकून मिला था, हमें एक दूसरे की बांहों में"


जो सुकून मिला था हमें एक दूसरे की बांहों में,
वो शायद न मिल सके खुदा की भी पनाहों में,
नजरें चुरा के दुनिया से चार दिन यूं जी लिए हम,
जिया न होगा कोई उम्रभर की मरहलाओं में
ये अलग बात है कि उस मोड़ पर पहुंच गए हैं अब
हर राह जुदा सी है उन सुनहरे खुशगवार लम्हों से

वक्त बदला और हालात भी बदल चुके हैं अब
तड़प खालिश और चुभन रह गई है दिल में
सितम किया वक्त ने और खुद को गुनहगार समझ बैठे,
परेशानी और शर्मिंदगी के बोझ तले दब जाते हो तुम

मुझसे तो गैर ही बेहतर जिनसे बेबाक पेश आते हो तुम
बिना अपने हाकिम से डरे और बिना दुनिया की परवाहों के
अब यही बेहतर है कि मुझे भी गैरों में शामिल करो
फिर शायद मुझसे बातें करने में शर्मिंदगी न हो
और मै भी तुमको जब चाहे पुकार सकूं औरों की तरह,
शायद फिर जी सकें हम दोनों बिना दर्द भरी आहों के

2 comments:

"अर्श" said...

bahot khub ........

Rahul kundra said...

bhai premchand, nirala to sadiyo mo ek hi baar paida hote hai unke jaisa to hum nahi lkh sakte par aap jo bhi likhte hai khub hai, blog bhi aacha hai.khuda aapko kamyab kare.